[SAVE THE NATURE] प्रकृति माँ का प्यार
"वन्य जीव मनुष्यों के क्षेत्रों में स्वछंद होकर विचरण कर रहा है मानो कह रहा हो कि "आली रे आली ,आता माझी बारी आली" ।पांच तत्वों का हाल देखिये जिनसे हम बने हैं और जो प्रकृति माँ हमें देकर जीवन के चक्र को चलाती जा रही थीं आज हमने उन्हें प्रदूषित करके उनको ही व्यवसाय बना दिया है।छोटे कदम ही सही लेकिन जब अरबों छोटे कदम बढ़ेंगे तो परिणाम का अंदाजा हम लगा सकते हैं। "
हिमालय की चोटियाँ अब फिर से दृष्टिगोचर होने लगी हैं ,नदियों का पानी साफ़ होने लगा है। सांस लेने में सहजता का आभास होने लगा है ,गगन भी अब पहले से साफ़ दिखाई दे रहा है धुंध और धुएं का फर्क नज़र आने लगा है । वन्य जीव मनुष्यों के क्षेत्रों में स्वछंद होकर विचरण कर रहा है मानो कह रहा हो कि "आली रे आली ,आता माझी बारी आली" । जैसे कल तक हम उनके क्षेत्रों में विचरण किया करते थे।
Himalayan Beauty ,the Serenity ,River Tista |
क्या ये कुछ अलग है,चमत्कार है या जादू है ?
नहीं ये तो पहले से था ये तो माँ प्रकृति का सुन्दर रूप था जिसे हमारी महत्वाकांक्षाओं की गर्द ने इस तरह ढक दिया कि अब हमारी नई पीढ़ियों को उनके रूप का सच्चा ज्ञान और भान है ही नहीं। अगर हमने कुछ गन्दा किया है और हमें उसके सत्य स्वरुप का ज्ञान है तब ही हम उसको पुनः उसी रूप में ला सकते हैं अन्यथा हम उसको वही रूप कभी नहीं दे सकते। कृत्रिम रूप देना भी उसके साथ अन्याय है ठीक उसी तरह से जैसे फलदार पेड़ को काटकर उसकी जगह उसके सदृश कृत्रिम पेड़ लगा दे सिर्फ उपस्थिति दर्ज़ करेगा परन्तु क्या कभी हम फल खा पाएंगे उसके ? नहीं कभी भी नहीं।
हमने अपने सिवाय किसी के बारे में सोचा ही नहीं। वन,नदियों ,झरनों का देखते ही देखते लोप होता चला गया। जितने बचे उनका हाल हम सब जानते हैं कि नदियाँ चुकी हैं वन के स्थान पर भव्य इमारतें बन गई हैं औद्योगिक प्रगति जोरों पर है।
पांच तत्वों का हाल देखिये जिनसे हम बने हैं और जो प्रकृति माँ हमें देकर जीवन के चक्र को चलाती जा रही थीं आज हमने उन्हें प्रदूषित करके उनको ही व्यवसाय बना दिया है। पानी तो कबसे हमें खरीद के पीना पड़ रहा है अब शुद्ध हवा भी बिकने लगी है ,सोचिये हमने क्या पाया जीने के आधारों को गंवाकर ?
जब हर तरफ पानी था जब नल चलाओ पानी मिलता था ,कुए राहियों के लिए मेजबानी करते थे। राही पानी पीते ,और कुछ वक़्त वहीँ किसी वृक्ष की छाँव में विश्राम करके अपनी यात्राओं को सुखद महसूस करते थे। सबकुछ मुफ्त था क्यूंकि ये प्रकृति माँ का प्यार था जो उनके लाडलों यानि हमने खुद उसे दूषित किया और बेचकर माँ को तकलीफ दी।
कितना अच्छा होता अगर प्रकृति माँ हमसे हर सांस के बदले कुछ मांगती तो शायद हम आज उसी के दिए वरदानों को बेचकर जीवन बसर नहीं कर रहे होते। प्रकृति माँ ने अपनी किसी संतान में भेदभाव नहीं किया एककोशीय जीव हो ,चींटी हो ,हाथी हों,गुलाब हों कांटे हो, वृक्ष हों या हम हों माँ ने सबके जीवन को जीने के लिए सब कुछ दिया है। किसी के साथ अन्याय नहीं किया किन्तु उनकी एक संतान जो कि सबसे बुद्धिमान प्राणी है उसी की बुद्धिमत्ता ने बाकी सबके जीवन को खतरे में डाला है।
दरअसल हमें लगता है कि बाकी सबकी ज़िन्दगी को बर्बाद करके हमने अपना जीवन मंगलमय कर लिया है पर ये मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं है। धीरे-धीरे विनाश की तरफ हमारा हर कदम बढ़ रहा है। कमाल है हम अपनी हरी भरी धरती को बिगाड़कर इसे जीवन के प्रतिकूल धकेलकर नए गृह पर जीवन तलाश रहे हैं।
सही कहते हैं "घर की मुर्गी दाल बराबर " हम इसी को चरितार्थ कर रहे हैं।
हमारी हर प्रगति प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास कर रही है। वन्य प्राणियों को हमने अपने स्वार्थ के लिए
पांच तत्वों का हाल देखिये जिनसे हम बने हैं और जो प्रकृति माँ हमें देकर जीवन के चक्र को चलाती जा रही थीं आज हमने उन्हें प्रदूषित करके उनको ही व्यवसाय बना दिया है। पानी तो कबसे हमें खरीद के पीना पड़ रहा है अब शुद्ध हवा भी बिकने लगी है ,सोचिये हमने क्या पाया जीने के आधारों को गंवाकर ?
जब हर तरफ पानी था जब नल चलाओ पानी मिलता था ,कुए राहियों के लिए मेजबानी करते थे। राही पानी पीते ,और कुछ वक़्त वहीँ किसी वृक्ष की छाँव में विश्राम करके अपनी यात्राओं को सुखद महसूस करते थे। सबकुछ मुफ्त था क्यूंकि ये प्रकृति माँ का प्यार था जो उनके लाडलों यानि हमने खुद उसे दूषित किया और बेचकर माँ को तकलीफ दी।
The nature is your guardian |
कितना अच्छा होता अगर प्रकृति माँ हमसे हर सांस के बदले कुछ मांगती तो शायद हम आज उसी के दिए वरदानों को बेचकर जीवन बसर नहीं कर रहे होते। प्रकृति माँ ने अपनी किसी संतान में भेदभाव नहीं किया एककोशीय जीव हो ,चींटी हो ,हाथी हों,गुलाब हों कांटे हो, वृक्ष हों या हम हों माँ ने सबके जीवन को जीने के लिए सब कुछ दिया है। किसी के साथ अन्याय नहीं किया किन्तु उनकी एक संतान जो कि सबसे बुद्धिमान प्राणी है उसी की बुद्धिमत्ता ने बाकी सबके जीवन को खतरे में डाला है।
दरअसल हमें लगता है कि बाकी सबकी ज़िन्दगी को बर्बाद करके हमने अपना जीवन मंगलमय कर लिया है पर ये मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं है। धीरे-धीरे विनाश की तरफ हमारा हर कदम बढ़ रहा है। कमाल है हम अपनी हरी भरी धरती को बिगाड़कर इसे जीवन के प्रतिकूल धकेलकर नए गृह पर जीवन तलाश रहे हैं।
सही कहते हैं "घर की मुर्गी दाल बराबर " हम इसी को चरितार्थ कर रहे हैं।
हमारी हर प्रगति प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास कर रही है। वन्य प्राणियों को हमने अपने स्वार्थ के लिए
उनके घरों को छीनकर अपनी सुविधाओं हेतु उनका ही क्षेत्र और संसाधन असीमित से सीमित कर दिए हैं।आज जब हमारे कृत्यों की वजह से उनकी संख्या कम हुई हमने गिनती करके जनहित में उन्हें बचाने की अपील की। कई जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो गई और कुछ विलुप्त होने की कगार पर हैं।
वृक्षों को काटकर हमने प्राणवायु का संकट उत्पन्न कर लिया, हमारी विलासिता की बरछी ने हमारी रक्षक ओजोन में भी छेद करके मुसीबत को न्योता देदिया। आज हम उन बीमारियों का शिकार हो रहे हैं जिन्हे हमने खुद बनाया है। वो चाहे विकिरण की वजह से हो , प्रदूषण की वजह से हो या लोभ या लालच की वजह से अप्राकृतिक तरीके से खाद्य सामग्री तैयार करना करना हो। हमने अपनी शक्तिशाली पृष्ठभूमि को छोड़कर
बाज़ारवाद अपनाकर समूल नाश की शुरुआत कर दी है।
दरख़्त का दर्द समझा नहीं ,धरती माँ का प्रकृति माँ को तकलीफ दी और हम आज ये आकंड़े गिन हैं कि २०२५ तक इतने शहरों में पानी नहीं रहेगा। आखिर पानी की कमी क्यों होगी हमारा तो गृह ही पानी की प्रचुरता के कारण "Blue Planet " या "नीला गृह " कहलाता है।
आखिर कब तक ये सब चलता रहेगा ?
हम कब तक सब कुछ जानकर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाएंगे?
छोटी छोटी चीज़ें भी बहुत कुछ बदल देती हैं। मेरे ऑफिस में मुझे एक मैन्युअल निकालने के लिए ४०० पेपर चाहिए थे। मेरे लिए ये सदा ही धर्मसंकट और सोच का विषय है कि जब सबकुछ ईमेल या सॉफ्ट कॉपी के ज़रिये हल हो सकता है तो क्यों पेपर खराब करके वृक्षों की जान खतरे में डालना। मैंने प्रिंटर के पास और डेस्क पर जितने भी पेपर जो कि या तो गलत प्रिंट हुए या प्रिंट देने के बाद उठाये नहीं गए ऐसे पेपर मैंने इकट्ठे किये और करीब २०० पेपर मैंने एक तरफ प्रिंट देकर प्रयोग किये।
हो सकता है कि ये सब आपको हास्यास्पद लग रहा हो पर मैंने अपने अभी तक के कार्यकाल में हज़ारों पेपर बचाये। ये छोटे कदम बड़ा फल दे सकते हैं अगर आप वैश्विक स्तर पर इसे देखेंगे तो ये एक क्रन्तिकारी कदम है। हम कुछ चीज़ें टाल नहीं सकते पर विकल्प तो ढूंढ सकते हैं ना।
क्या आप सहमत हैं ? जो मैंने कहा उससे। कृपया मुझे टिप्पणी करके अवश्य बतायें क्यूंकि ये मेरी पहल है और आपके सुझाव ,साथ और प्रतिक्रिया अनुरूप मैं आगे भी इस विषय पर कुछ ऐसा कर जाना चाहता हूँ कि धीरे -धीरे हम प्रकृति माँ को फिर से खिलता हुआ देखें। कुछ ऐसा करें जो हमारे गृह को विनाश से बचा सके। छोटे कदम ही सही लेकिन जब अरबों छोटे कदम बढ़ेंगे तो परिणाम का अंदाजा हम लगा सकते हैं।
क्रमशः
Wild life photo |
वृक्षों को काटकर हमने प्राणवायु का संकट उत्पन्न कर लिया, हमारी विलासिता की बरछी ने हमारी रक्षक ओजोन में भी छेद करके मुसीबत को न्योता देदिया। आज हम उन बीमारियों का शिकार हो रहे हैं जिन्हे हमने खुद बनाया है। वो चाहे विकिरण की वजह से हो , प्रदूषण की वजह से हो या लोभ या लालच की वजह से अप्राकृतिक तरीके से खाद्य सामग्री तैयार करना करना हो। हमने अपनी शक्तिशाली पृष्ठभूमि को छोड़कर
बाज़ारवाद अपनाकर समूल नाश की शुरुआत कर दी है।
दरख़्त का दर्द समझा नहीं ,धरती माँ का प्रकृति माँ को तकलीफ दी और हम आज ये आकंड़े गिन हैं कि २०२५ तक इतने शहरों में पानी नहीं रहेगा। आखिर पानी की कमी क्यों होगी हमारा तो गृह ही पानी की प्रचुरता के कारण "Blue Planet " या "नीला गृह " कहलाता है।
Nature care for us until we hurt it. |
आखिर कब तक ये सब चलता रहेगा ?
हम कब तक सब कुछ जानकर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाएंगे?
हम कैसे योगदान कर सकते हैं ?
कई बड़ी बड़ी संस्थाएं ,संगठन आज प्रकृति को बचाने के लिए समय समय पर सभाएं और विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करते हैं। आज वन्य जीवों की रक्षा के लिए ,वृक्षों को बचाने और वृक्षारोपण करने के लिए , नदियों के ,सागर के तटों को स्वच्छ करने का काम चल रहा है पर ये निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। हमें इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए सिर्फ अनुमोदना से भी कुछ नहीं होने वाला। एक समर्थ कार्यकर्ता की तरह किसी को दिखाने के लिए नहीं ,किसी के कहने पर नहीं ,किसी के दवाब में नहीं बल्कि खुद के अंदर से प्रेरित होकर हमें प्रकृति माँ के चरणों में खुद को अर्पण करना ही होगा।छोटी छोटी चीज़ें भी बहुत कुछ बदल देती हैं। मेरे ऑफिस में मुझे एक मैन्युअल निकालने के लिए ४०० पेपर चाहिए थे। मेरे लिए ये सदा ही धर्मसंकट और सोच का विषय है कि जब सबकुछ ईमेल या सॉफ्ट कॉपी के ज़रिये हल हो सकता है तो क्यों पेपर खराब करके वृक्षों की जान खतरे में डालना। मैंने प्रिंटर के पास और डेस्क पर जितने भी पेपर जो कि या तो गलत प्रिंट हुए या प्रिंट देने के बाद उठाये नहीं गए ऐसे पेपर मैंने इकट्ठे किये और करीब २०० पेपर मैंने एक तरफ प्रिंट देकर प्रयोग किये।
हो सकता है कि ये सब आपको हास्यास्पद लग रहा हो पर मैंने अपने अभी तक के कार्यकाल में हज़ारों पेपर बचाये। ये छोटे कदम बड़ा फल दे सकते हैं अगर आप वैश्विक स्तर पर इसे देखेंगे तो ये एक क्रन्तिकारी कदम है। हम कुछ चीज़ें टाल नहीं सकते पर विकल्प तो ढूंढ सकते हैं ना।
क्या आप सहमत हैं ? जो मैंने कहा उससे। कृपया मुझे टिप्पणी करके अवश्य बतायें क्यूंकि ये मेरी पहल है और आपके सुझाव ,साथ और प्रतिक्रिया अनुरूप मैं आगे भी इस विषय पर कुछ ऐसा कर जाना चाहता हूँ कि धीरे -धीरे हम प्रकृति माँ को फिर से खिलता हुआ देखें। कुछ ऐसा करें जो हमारे गृह को विनाश से बचा सके। छोटे कदम ही सही लेकिन जब अरबों छोटे कदम बढ़ेंगे तो परिणाम का अंदाजा हम लगा सकते हैं।
क्रमशः
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