नाम उसका अहंकार [Poem in Hindi ]
वंश का विध्वंस करता ,नाम उसका अहंकार।
ना हो तो जीवन सुखद , अन्यथा है प्रलयंकार।
मुझको दबा रखता सदा, "मैं" को ही करता उजागर।
दिखलाता मुझे मरुस्थल, हूँ असल में मैं तो सागर।
परमार्थ है मेरा स्वभाव ,ये स्वार्थ सिंधु में डुबोता।
ना होता गर अहंकार ,तो आज में कुछ और होता।
पंचतत्वों से हूँ जन्मा ,उनमे ही मिल जाऊँगा।
ना जाने क्यों ये भ्रमित करता, कि मृत्युंजय बन जाऊँगा।
हूँ राम मैं भी किन्तु ये ,रखे दूर उनसे मुझे।
मुझसे मुझको दूर करके,जाने क्यों परखे मुझे।
आदि मेरा शांत था ,तो अंत भी तो शांत हो।
मिटे अहम् का ये तिमिर ,चित्त फिर प्रशांत हो।
ज्ञान मेरा लुप्त करता ,मुर्ख सा बन जाता हूँ।
मेरा ही हो गर हितेषी ,उस पर ही तन जाता हूँ।
सबको लगता हूँ मैं दोषी,लेकिन मैं होता नहीं।
चाहता तो हूँ बहुत लेकिन, चाहके भी रोता नहीं।
ये मुझे ना जाने किस ,गर्त में ले जाएगा।
ना जाने मेरा दमन करके ,इसको क्या मिल जाएगा।
अगले भवों में अहंकार से ,कलुषित ना हो जीवन मेरा ।
विनती है प्रभु हाथ जोड़के , पावन रखना बस मन मेरा।
अहम् के चंगुल से हम सबको ,जब आज़ादी मिल जाएगी।
स्वर्ग से सुन्दर, सबसे प्यारी अपनी धरती हो जाएगी।
ना हो तो जीवन सुखद , अन्यथा है प्रलयंकार।
मुझको दबा रखता सदा, "मैं" को ही करता उजागर।
दिखलाता मुझे मरुस्थल, हूँ असल में मैं तो सागर।
परमार्थ है मेरा स्वभाव ,ये स्वार्थ सिंधु में डुबोता।
ना होता गर अहंकार ,तो आज में कुछ और होता।
पंचतत्वों से हूँ जन्मा ,उनमे ही मिल जाऊँगा।
ना जाने क्यों ये भ्रमित करता, कि मृत्युंजय बन जाऊँगा।
हूँ राम मैं भी किन्तु ये ,रखे दूर उनसे मुझे।
मुझसे मुझको दूर करके,जाने क्यों परखे मुझे।
आदि मेरा शांत था ,तो अंत भी तो शांत हो।
मिटे अहम् का ये तिमिर ,चित्त फिर प्रशांत हो।
ज्ञान मेरा लुप्त करता ,मुर्ख सा बन जाता हूँ।
मेरा ही हो गर हितेषी ,उस पर ही तन जाता हूँ।
सबको लगता हूँ मैं दोषी,लेकिन मैं होता नहीं।
चाहता तो हूँ बहुत लेकिन, चाहके भी रोता नहीं।
ये मुझे ना जाने किस ,गर्त में ले जाएगा।
ना जाने मेरा दमन करके ,इसको क्या मिल जाएगा।
अगले भवों में अहंकार से ,कलुषित ना हो जीवन मेरा ।
विनती है प्रभु हाथ जोड़के , पावन रखना बस मन मेरा।
अहम् के चंगुल से हम सबको ,जब आज़ादी मिल जाएगी।
स्वर्ग से सुन्दर, सबसे प्यारी अपनी धरती हो जाएगी।
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