नरश्रेष्ठ भीष्म पितामह [Story of Warrior Bhishm Pitamah]

मैं भीष्म पितामह के बारे में यह कहना चाहता हूँ कि उन जैसा सर्वशक्तिमान उन जैसा आदर्श, दृढ़ निश्चयी कोई भी नहीं हुआ। उनका जीवन बहुत बड़ी प्रेरणा है हम जिन बलिदानों के बारे में सोच भी नहीं सकते वह बलिदान पलक झपकते ही कर दिया जब भी उनसे किसी ने कुछ मांगा उन्होंने अपनी खुशियों का बलिदान करके उसको वह दिया बस इसी बलिदान की श्रंखला में उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया। इन्हीं प्रतिज्ञाओं के बाद उन्हें भीष्म नाम मिला।
मैंने सोचा क्यों हुआ यह सब भीष्म पितामह के साथ क्यों हुआ जब मैं इसको जानने के लिए उत्सुक हुआ तो मैंने उसके बारे में जानने की जहाँ-जहाँ से कोशिश कर सकता था मैंने की।
मैंने यह जानने की कोशिश की कि क्यों गंगा के सातों पुत्र जाने के बाद आठवें पुत्र के समय उनके पिता ने उन्हें क्यों रोका फिर मैंने देखा कि भीष्म पितामह को जिनका के नाम देवव्रत था वह ऋषियों के आश्रम में चले गए जहाँ उन्होंने शिक्षा-दीक्षा ली। उन्होंने बहुत सारा ज्ञान अर्जित किया एक योद्धा बने और जब राजा शांतनु को मिले तो राजा शांतनु बहुत खुश हुए। उनको जब राजा शांतनु ने उनको युवराज घोषित किया तो प्रजा भी बहुत खुश थी।

जब राजा शांतनु ने सत्यवती को देखा, उस पर मोहित हो गए और जब उन्होंने उनके पिता से सत्यवती के विवाह की बात की सत्यवती के पिता ने यह कहकर मना कर दिया कि मेरी-मेरी बेटी के बच्चे ही सम्राट बनेंगे और क्योंकि आपका बेटा है तो मेरी बेटी के बच्चों को कभी राज नहीं मिलेगा राजा शांतनु ने साफ तौर पर उनसे कह दिया वे देवव्रत को ही अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे यह कहकर वह महल आ गए।

परंतु सत्यवती के प्रति जो प्रेम उनके मन में था उससे विवश होकर वह दुखी रहने लगे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा परेशान रहने लगे। जब देवव्रत को अपने पिता के दुख का कारण पता चला वह तुरंत जाकर निषादराज से मिले और उनसे प्रार्थना कि जब निषाद राज ने वही बात उनसे कही तो पित्र भक्त देवव्रत ने यह प्रतिज्ञा ली कि वे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और राज का त्याग कर दिया उन्होंने उन्हें भरोसा दिला दिया कि सत्यवती के पुत्र ही राज्य के अधिकारियों उत्तराधिकारी होंगे भीष्म प्रतिज्ञा लेने के बाद उनका नाम भीष्म पड़ा।

यह उनका पहला और सर्वोच्च बलिदान था जो उन्होंने अपने पिता के लिए दिया। जब उनके पिता को यह पता चला तो उन्होंने उन्हें कहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया परंतु उनकी पितृभक्ति देखकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत ने भी यह प्रतिज्ञा कि-कि पिता के बाद जो कोई भी सिंहासन पर विराजमान होगा उसमें अपना पिता देखूंगा और सदैव हस्तिनापुर की रक्षा करता रहूंगा।

उनके इस बलिदान के बाद सबने देखा क्योंकि इस प्रतिज्ञा से पूरे भारतवर्ष का दृश्य ही बदल गया उसी परिवार की जिसके के चिराग थे भीष्म पितामह उस में फूट पड़ गई और बात महाभारत तक पहुँच गई जब महाभारत समाप्त हुई मैंने जानना चाहा कि यह सब क्या था भीष्म पितामह का जीवन ऐसा क्यों था फिर मुझे गूगल से कुछ लोगों से जो जानकारी मिली उनसे मैंने जाना कि यह वही था जो सबके साथ होता है, जो हम सब के साथ होता है हो जो होता चला आ रहा है, कर्म हमारे कर्म।

भीष्म पितामह पिछले जन्म में अष्ट वसु में से एक थे जिनका नाम था प्रभास। वसु इंद्र के और भगवान विष्णु के रक्षक देव हैं एक बार अष्ट वसु जंगल में क्रीडा कर रहे थे कि उन्हें एक गाय दिखी जो प्रभास की पत्नी को बहुत ही अच्छी लगी और उन्होंने अपने पति से उसे चुराने के लिए कहा प्रभास ने बाकी सातों के साथ मिलकर उस गाय को चुरा लिया। दुर्भाग्यपूर्ण था कि वह गाय ऋषि वशिष्ठ की थी जब ऋषि वशिष्ठ को यह पता चला तो उन्होंने अष्ट वसु को श्राप दिया कि उन्होंने यह जो भुलोकवासियों जैसा कर्म किया है उन्हें भी पृथ्वी पर जन्म लेना होगा।

अष्ट वसु ने उनसे क्षमा मांगी ऋषि वशिष्ठ ने कहा कि तुम में से सात वसु जन्म के तुरंत बाद मुक्त हो जाओगे परंतु प्रभास को पूर्ण जीवन यापन करना पड़ेगा तब सभी वसु ने मिलकर माँ गंगा से विनती की हे माँ आप ही हमारी माता बनना और हमारी मुक्ति करा देना।

जब राजा शांतनु से माँ गंगा ने विवाह किया तो यह शर्त रखी कि जो भी संतान उत्पन्न होगी मैं उसके साथ जो भी करूंगी आप नहीं रोकेंगे और इस तरह से जन्म के तुरंत बाद माँ गंगा ने उन सातों को आजाद कर दिया मुक्त कर दिया परंतु आठवें पुत्र के साथ ऐसा होता देखकर राजा शांतनु ने रोक दिया और इस तरह से वह प्रभास का जीव देवव्रत के रूप में पृथ्वी पर रहा जिसे बाद में भीष्म पितामह नाम से जाना।

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